क्या गोरखपुर ब्लास्ट के पीछे थ
लोक पर हावी हो चुका है पुलिस तंत्र
क्या गोरखपुर ब्लास्ट के पीछे मक्का मस्जिद, मालेगाँव और समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोटों वाला हिन्दुत्ववादी मॉड्यूल था? जी हाँ, यह आशँका रिहाई मंच ने जाहिर की है। आज मंच की तरफ से गोरखपुर सीरियल ब्लास्ट पर रिपोर्ट जारी की गयी। मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि वे व्यक्ति, जिनसे पूछताछ की गयी, उनके नाम राकेश कुमार निषाद, अविनाश मिश्रा, कृष्ण मोहन उपाध्याय और भानू प्रसाद चौहान हैं। ये सभी पूर्व में हुये बम विस्फोट के अलग-अलग मामलों में जेल जा चुके थे और उनके मुकदमे विचाराधीन थे। यह सभी व्यक्ति जो पूर्व में हुये बम विस्फोटों के मुकदमों में जेल जा चुके थे, हिन्दू युवा वाहिनी से जुड़े हैं परन्तु इन से राजनीतिक दबाव में गहन पूछताछ नहीं की गयी। आइये देखते हैं क्या है रिहाई मंच की रिपोर्ट
विवेचना की धाँधलियों को परत दर परत खोलती गोरखपुर सीरियल ब्लास्ट पर रिहाई मंच की रिपोर्ट
घटना के सम्बंध में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट
दिनाँक 22 मई, 2007 को समय करीब शाम सात बजे गोरखपुर नगर में तीन बम धमाके हुये जिसके सम्बंध में राजेश राठौर, जो कि एक पेट्रोल पम्प पर सेल्समैन का काम करता था, ने थाना कैंट गोरखपुर में रिपोर्ट दर्ज करायी। इसके आधार पर मुकदमा अपराध संख्या 812 सन 2007, अन्तर्गत धारा 307 आयीपीसी, धारा-3/4/5 विस्फोटक पदार्थ अधिनियम व 7 क्रिमिनल लॉ एमेंडमेंट एक्ट कायम हुआ। दर्ज करायी गयी रिपोर्ट के अनुसार वादी ने कहा कि सात बजे उसे जलकल बिल्डिंग की तरफ से धमाके की आवाज सुनायी दी और तभी दूसरा धमाका बलदेव प्लाजा पेट्रोल पम्प के बगल में हुआ। यह विस्फोट साइकिल पर टँगे झोलों में रखे बम विस्फोट के कारण हुआ। अफरा-तफरी का माहौल हो गया और तभी तीसरा धमाका गणेश चौराहे पर हुआ। एफआईआर में लिखा है कि तीनों जगह साइकिल पर टँगे झोले में रखे बमों के विस्फोट होने के कारण लगातार एक के बाद एक धमाके हुये। ऐसा मालूम होता है कि आतंक फैलाने के मकसद से भीड़-भाड़ वाले इलाके में ये धमाके हुये। चूँकि इनकी क्षमता कम थी, इसलिये कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ। इक्का-दुक्का लोगों को चोटें आयी हैं। जागरूक नागरिक होने के नाते सूचना दे रहा हूँ। उपरोक्त रिपोर्ट थाना कैंट में 22 मई को रात्रि 8 बजकर 45 मिनट पर यानी घटना से लगभग पौने दो घंटे बाद दर्ज हुयी। इस मामले की जाँच विवेचक एसआई राकेश कुमार सिंह थाना कैंट को सौंपी गयी। घटना के अगले दिन दिनाँक 23 मई, 2007 को प्रमुख सचिव (गृह) के. चंद्रमौली, डीजीपी जीएल शर्मा, एडीजी (एसटीएफ) शैलजाकांत मिश्र ने घटना स्थलों का दौरा किया। इसी दिन गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर बन्द का आह्वान किया और बाजार बन्द रहे। विवेचक द्वारा कुछ घायलों के बयान लिखे गये। घायल रामेश्वर पटेल, राजेश शर्मा, संतोष सिंह, संजय राय और गुड्डू चैबे ने बयान अन्तर्गत धारा-161 सीआरपीसी दर्ज कराये। इन पाँच के अलावा विवेक यादव के घायल होने का जिक्र भी विवेचक ने अपनी विवेचना दिनाँक 23 मई, 2007 की केस डायरी में किया है। वादी और घायल गवाह - नहीं बता सके कि साइकिलें किसने खड़ी कीं। पहला प्रश्न यह है कि जिन पाँच उपरोक्त घायलों के बयान विवेचक द्वारा केस डायरी में लिखे गये हैं, उनमें से किसी ने भी यह बयान नहीं दिया है कि विस्फोट किस प्रकार हुआ। उन्होंने केवल इतना ही कहा कि विस्फोट हुआ और वे नहीं समझ पाये कि ये किस प्रकार हुआ। वे घायल हो गये। जो व्यक्ति घटना स्थल पर मौजूद थे और घायल हुये, उनके द्वारा यह नहीं कहा गया कि ये विस्फोट साइकिल में रखे झोलों में हुये थे और ऐसा होते उन्होंने देखा था। परन्तु दिलचस्प यह है कि रिपोर्ट दर्ज कराने वाला व्यक्ति राजेश राठौर, जो विस्फोट के समय किसी भी घटना स्थल पर उपस्थित नहीं था और ना ही वह घायल हुआ था, द्वारा अपनी रिपोर्ट में लिखाया गया कि तीनों धमाके साइकिल में टँगे झोलों में रखे बमों के फटने से हुये। इतना ही नहीं, उसके द्वारा यह भी बड़ी बेबाकी से रिपोर्ट में लिखाया गया कि इन धमाकों की क्षमता कम थी, इसलिये कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ और सम्भवतः इक्का-दुक्का लोगों को चोटें आयी हैं। पुलिस द्वारा हिन्दू युवा वाहिनी से जुड़े अपराधियों से गहन पूछताछ नहीं की गयी? पुलिस द्वारा यह मानकर कि बम विस्फोट साइकिल में टँगे झोलों के अन्दर रखे बमों के फटने से ही हुये हैं, विवेचना प्रारम्भ कर दी गयी। दिनाँक 24 मई, 2007 के बाद विवेचक द्वारा आशीष कुमार गुप्ता, बेचू लाल, अख्तर के बयान दर्ज किये गये। परन्तु इनमें से किसी ने भी अपने बयानों में यकीन से नहीं कहा कि उन्होंने साइकिलों में टँगे झोलों में से बम विस्फोट होते हुये देखा था। यह अवश्य कहा कि घटना स्थल पर साइकिलें टूटी पड़ी थीं। विवेचक द्वारा कुछ संदिग्ध अपराधियों से पूछताछ की गयी जो इससे पूर्व बम विस्फोट के मुकदमों में जेल जा चुके थे। परन्तु उनमें से किसी ने भी इन विस्फोटों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। वे व्यक्ति, जिनसे पूछताछ की गयी, उनके नाम राकेश कुमार निषाद, अविनाश मिश्रा, कृष्ण मोहन उपाध्याय और भानू प्रसाद चौहान हैं। ये सभी पूर्व में हुये बम विस्फोट के अलग-अलग मामलों में जेल जा चुके थे और उनके मुकदमे विचाराधीन थे। यह सभी व्यक्ति जो पूर्व में हुये बम विस्फोटों के मुकदमों में जेल जा चुके थे, हिन्दू युवा वाहिनी से जुड़े हैं परन्तु इन से राजनीतिक दबाव में गहन पूछताछ नहीं की गयी। विवेचक द्वारा विजय कुमार श्रीवास्तव, जो बलदेव प्लाजा के मालिक का गनर है, ओम प्रकाश पासी, जावेद और शमसुल हसन के भी बयान दर्ज किये। परन्तु इनके चश्मदीद गवाह नहीं होने के कारण विवेचक को कोई महत्वपूर्ण जानकारी इनसे प्राप्त नहीं हो सकी। जब कोई चश्मदीद गवाह नहीं तो अपराधियों का स्केच कैसे बना ? विवेचक द्वारा दिनाँक 10 जून, 2007 की केस डायरी पर्चा नम्बर-10 में यह उल्लेख किया गया है कि तीन संदिग्ध अपराधियों के स्केच, जो पूछताछ के बाद बनाया गया था, को पोस्टर के माध्यम से सार्वजनिक स्थानों पर भेजकर चस्पा कराया गया। इन स्केच को केस डायरी के साथ संलग्न किया गया तथा सूचना देने वाले को 10 हजार रूपये देने की घोषणा की गयी। यह दिलचस्प है कि तीन संदिग्ध अपराधियों के स्केच, जो विवेचक द्वारा बनवाये गये, वह किसकी सूचना के आधार पर, जिसने उन संदिग्ध अपराधियों का साइकिलें रखते हुये देखा हो, बनवाये। ऐसे किसी चश्मदीद गवाह का नाम ना किसी केस डायरी में मिलता है और ना ही उसका कोई बयान दर्ज है। यहाँ तक कि इसका भी उल्लेख नहीं है कि अपना नाम और पता गुप्त रखने की शर्त पर किसी गवाह ने कोई जानकारी दी हो और जो चश्मदीद साक्षी रहा हो जिसने उन व्यक्तियों को देखा हो जिनके स्केच उसने बनवाये। चूँकि ऐसा कोई तथ्य अथवा साक्ष्य केस डायरी पर उपलब्ध नहीं है, इसलिये यह कहा जा सकता है कि विवेचक द्वारा जो स्केच बनवाये गये, वो मनगढ़न्त थे और सम्भवतः कुछ ऐसे व्यक्तियों को इस मामले में अभियुक्त बनाने की तैयारी कर ली गयी थी जो पुलिस की अभिरक्षा में पहले से ही रहे होंगे। दिनाँक 11 जुलाई, 2007 को विवेचना एसआई श्री दुर्गेश कुमार को सौंप दी गयी। दिनाँक 27 जुलाई, 2007 को एक विशेष टीम का गठन किया गया और जारी स्केच के आधार पर ही अभियुक्तों की तलाश शुरू कर दी गयी। विवेचक द्वारा रितेश जालान का बयान दर्ज किया गया लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। दिनाँक 27 अगस्त, 2007, दिनाँक 7 सितम्बर, 2007, दिनाँक 20 सितम्बर, 2007, दिनाँक 14 अक्टूबर, 2007 की केस डायरियों के अवलोकन से स्पष्ट होगा कि जारी किये गये स्केचों के आधार पर ही अभियुक्तों की तलाश की जा रही थी। दिनाँक 24 अक्टूबर, 2007 को विवेचना एपी सिंह द्वारा शुरू की गयी जो संदिग्ध अभियुक्तों के जारी स्केच पोस्टरों को लेकर जगह-जगह पूछताछ करते रहे लेकिन उन्हें कोई कारगर जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। इस काण्ड की पूरी विवेचना में अब तक स्पष्ट हुआ कि न तो कई चश्मदीद गवाह ऐसा मिल सका जिसने किसी व्यक्ति को साइकिलों को रखते हुये घटना स्थलों पर देखा हो और उसे पहचाना हो और ना ही कोई ऐसा चश्मदीद गवाह सामने आया जिसके सामने साइकिलों पर टँगे झोलों से बम फटे हों। उन व्यक्तियों के नाम और बयान भी शामिल विवेचना में नहीं है जिन्होंने संदिग्ध अभियुक्तों के स्केच बनवाये, जिनको लेकर पुलिस विवेचना अधिकारी अभियुक्तों को ढूँढते घूम रही थी। वादी राजेश राठौर का बयान भी विश्वसनीय नहीं माना जा सकता क्योंकि वह किसी भी घटना स्थल पर स्वयं उपस्थित नहीं था और ना ही वह घायल हुआ था। तारिक कासमी की बाराबंकी मामले में गैर कानूनी हिरासत एक महत्वपूर्ण मोड़ गोरखपुर मामले में भी अभियुक्त बनाने की साजिश रची गयी दिनाँक 14 दिसम्बर 2007 को विवेचना में उस समय महत्तवपूर्ण मोड़ आया जब थाना प्रभारी निरीक्षक कैंट एपी सिंह जो कि इस काण्ड के विवेचक थे वरिष्ठ पुलिस अधिक्षक गोरखपुर के निर्देश पर अभियुक्तों का पता लगाने के लिये एंटी टेररिस्ट सेल लखनऊ आये जहाँ उन्होंने अधिकारियों से सम्पर्क करके उन्हें संदिग्ध अभियुक्तों को स्केच दिखाकर जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। इसका उल्लेख एपी सिंह ने केस डायरी पर्चा नम्बर 24 दिनाँक 14 दिसम्बर 2007 में किया है। यहाँ यह उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि इससे दो दिन पूर्व दिनाँक 12 दिसम्बर 2007 को तारिक कासमी को पुलिस और एसटीएफ की मिलीभगत से उस समय गैर कानूनी हिरासत में ले लिया गया था जब वे आजमगढ़ के रानी की सराय स्थित सड़क मार्ग से अपनी मोटर साइकिल पर सवार होकर कहीं जा रहे थे और इस सम्बन्ध में समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित हो गये थे तथा आजमगढ़ जनपद के सम्बंधित थाना और वरिष्ठ अधिकारियों को भी सूचित किया जा चुका था। इसलिये इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब 14 दिसम्बर को एपी सिंह एंटी टेररिस्ट लखनऊ में आये तो उस समय उनके रुबरु तारिक कासमी को न किया गया हो क्योंकि इस बात के सबूत मौजूद हैं कि वह दिनाँक 14 दिसम्बर 2007 को लखनऊ में ही पुलिस एजेंसियों की गैर कानूनी हिरासत में था। दिनाँक 14 दिसम्बर 2007 को लखनऊ से लौटकर एपी सिंह ने दिनाँक 15 दिसम्बर 2007 और दिनाँक 20 दिसम्बर 2007 को संदिग्ध अभियुक्तों के स्केच और फोटो आम लोगों को दिखाये और जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न किया पर कोई सफलता नहीं मिली। लखनऊ में तारिक कासमी को विधिक रूप से गिरफ्तार दिखाया जायेगा इसका इंतजार विवेचक करने लगे और 22 दिसम्बर 2007 को तारिक कासमी की विधिक गिरफ्तारी की घोषणा होते ही विवेचक द्वारा साइकिल विक्रेताओं की झूठी गवाही, विक्रय की झूठी रसीदों की फोटो स्टेट प्रतियाँ व मौलाना अफजालुल हक को गवाह के रूप में फिट करने का काम इस योजना के साथ तैयार कर लिया कि इस काण्ड का मुख्य आरोपी तारिक कासमी को ही बनाना है। विवेचक की नयी धाँधली- साइकिलें खरीद की झूठी गवाही गढ़ना दिनाँक 24 दिसम्बर 2007 को विवेचना एपी सिंह से हटाकर क्षेत्राधिकारी कैंट गोरखपुर को सुपुर्द कर दी गयी और क्षेत्राधिकारी कैंट गोरखपुर द्वारा विवेचना में नई धाँधली शुरु कर दी गयी। अपनी विवेचना के प्रथम दिन क्षेत्राधिकारी कैंट गोरखपुर ने दिनाँक 25 दिसम्बर 2007 को केस डायरी पर्चा नम्बर 29 में यह झूठा उल्लेख किया- ‘‘श्रीमान जी उपरोक्त अभियोग में इसके पूर्व जाँच के दौरान यह ज्ञात हुआ था कि घटना में प्रयुक्त साइकिलें रेती चौक स्थित जयदुर्गा साइकिल स्टोर व हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर से खरीदी गयी थीं और उन्हीं दुकानदारों से पूछताछ के आधार पर घटना में शामिल सम्भावित अभियुक्तों का स्केच जारी किया गया था।’’ यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि क्षेत्राधिकारी कैंट गोरखपुर द्वारा अपनी विवेचना में उपरोक्त विवरण का झूठा उल्लेख किया गया क्योंकि 25 दिसम्बर 2007 के पूर्व की तिथियों में लिखी गयी केस डायरी में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि किसी भी तिथि में किसी भी विवेचक ने रेती चौक स्थित जय दुर्गा साइकिल स्टोर और हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर के दुकानदारों से कोई पूछताछ की और दौरान विवेचना यह जानकारी प्राप्त हुयी हो कि यह साइकिलें उन्हीं के दुकान से बेची गयी थी और उन दुकानदारों ने साइकिल खरीदने वाले व्यक्तियों का कोई स्केच बनवाया हो। जिस तिथि 10 जून 2007 को स्केच बनवाये गये थे उस तिथि तक विवेचना में यह नहीं आया था कि साइकिलें कहाँ से खरीदी गयी हैं। इसलिये पर्चा नम्बर 29 में किया गया उल्लेख झूठा साबित होता है। उक्त विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव प्रभारी उपाधीक्षक कैंट गोरखपुर द्वारा दिनाँक 25 दिसम्बर 2007 को जय दुर्गा साइकिल स्टोर के मालिक संजीव कुमार का बयान दर्ज किया गया। विवेचक द्वारा यह उल्लेख किया गया कि विस्फोट के स्थल से टूटी साइकिल का फ्रेम नम्बर 68467 बरामद हुआ था जिसके सम्बन्ध में दुकान मालिक द्वारा बताया गया कि इस फ्रेम नम्बर की साइकिल को उसने इफ्तिखार नाम के आदमी को दिनाँक 21 मई 2007 को बेचा था। दुकानदार द्वारा उसका हुलिया भी बताया गया था। दुकानदार द्वारा बिक्री करने की रसीद की छाया प्रति भी दिखायी गयी। क्या यह सम्भव है कि कोई दुकानदार सात माह पूर्व बेची गयी साइकिल के खरीदने वाले चेहरे को याद रखे रख सकता है जबकि वह उसे पहले से न जानता हो, इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा। प्रश्न यह पैदा होता है कि इससे पूर्व की विवेचना में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि घटना स्थल से टूटी साइकिल का जो फ्रेम प्राप्त हुआ उस पर नम्बर डीएन 68467 पड़ा था और न ही इसका कोई उल्लेख आया कि दुकानदार ने खरीदार का कोई स्केच बनवाया हो। यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि दिनाँक 25 दिसम्बर 2007 को संजीव कुमार के इस बयान में यह बात कहीं भी नहीं आयी है कि उससे पहले भी किसी विवेचक इस सम्बन्ध में कोई पूछताछ की थी और उसने साइकिल खरीदने वाले का कोई स्केच बनावाया था। घटना स्थल से टूटी साइकिलों के जो फ्रेम बरामद हुये उन पर नम्बर डीएन 69467 पड़ा था, दूसरी साइकिल का फ्रेम नम्बर एसएल 390461 था जैसा कि केस डायरी दिनाँक 22 मई 2005 में उल्लेखित है, परन्तु यह नम्बर विक्रेताओं द्वारा बताये गये नम्बरों से मेल नहीं खाते हैं। दिनाँक 28/12/2007 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव ने हिन्दुस्तान साइकिल शो रूम के मालिक सुनील शेट्टी का बयान दर्ज किया। सुभाष शेट्टी द्वारा यह जानकारी दी गयी कि जिस व्यक्ति द्वारा साइकिलों की खरीददारी की गयी थी वह सामने आने पर उसको पहचान सकता है। साइकिलों की खरीद की जो रसीद दी गयी उस पर पड़े हुये नम्बरों और जो टूटे हुये साइकिल फ्रेम घटनास्थल से बरामद हुये उनके नम्बरों में भिन्नता है। विवेचक द्वारा साइकिल विक्रेताओं की मूल रसीदों को ही संलग्न केस डायरी करना चाहिये था। जिससे यह साबित होता कि इन उपरोक्त साइकिल विक्रेताओं द्वारा रेग्युलर कोर्स ऑफ बिजनेस में बिक्री की रसीदों को रिकॉर्ड के रूप में रखा जा रहा है अथवा नहीं। रसीद पर खरीददार के हस्ताक्षर कराये जाते हैं, वह कराये गये अथवा नहीं और वारंटी कार्ड जारी किया गया या नहीं और उस पर किसके हस्ताक्षर ग्राहक के रूप में हैं इन हस्ताक्षरों कामिलान, तारिक कासमी, सैफ, सलमान के हस्ताक्षरों के नमूने लेकर कराया जा सकता था। मात्र रसीद की फोटो स्टेट प्रति साक्ष्य में स्वीकार नहीं हो सकती। प्रश्न यह भी है कि यह साइकिलें दुकानदारों द्वारा कहाँ से थोक/ रिटेल में खरीदकर अपनी दुकान में विक्रय के लिये रखीं हुयी थीं इसकी भी छानबीन कराना चाहिये। अभियोजन का केस शक की प्रत्येक सम्भावना और दायरे से बाहर होना चाहिये। परन्तु विवेचकों द्वारा बार-बार की जा रही दोषपूर्ण विवेचना साइकिलों के विक्रय की रसीदों के फर्जी होने का शक पैदा करती हैं। पुलिसिया रौब में यह रसीदें दुकानदारों से बनावा ली गयी हैं। उपरोक्त विवरण से साबित है कि विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव द्वारा फर्जी विवेचना की गयी और झूठे साक्ष्य गढ़े गये। तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की बाराबंकी में गिरफ्तारी लिखे गये झूठे इकबालिया बयान दिनाँक 26 दिसम्बर 2007 को सम्पूर्ण काण्ड में एक नया मोड़ आ गया। पुलिस अधीक्षक बाराबंकी ने फैक्स दिनाँक 22 दिसम्बर 2007 के द्वारा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक गोरखपुर को सूचित किया कि एसटीएफ लखनऊ द्वारा हूजी के दो आतंकवादी खालिद मुजाहिद और तारिक कासमी को भारी संख्या में विस्फोटक सामग्री, रॉड और डेटोनेटर के साथ गिरफ्तार किया है और इस सम्बंध में थाना कोतवाली बराबंकी में मुकदमा अपराध संख्या 1891 सन 2007 पंजीकृत हुआ और पूछताछ के दौरान अभियुक्तों द्वारा गोरखपुर में हुयी विस्फोट की घटनाओं में शामिल होने की स्वीकारोक्ति की गयी है। यहाँ यह उल्लेख किया जाना आावश्यक है कि खालिद मुजाहिद को दिनाँक 16 दिसम्बर 2007 को उसके गृहनगर मडि़याहूँ से एसटीएफ की मिलीभगत से पकड़कर अपनी गैरकानूनी हिरासत में रखा गया था जिसके सम्बंध में समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित हुये और उसके परिजनों द्वारा पुलिस मानवाधिकार आयोग, न्यायालय तक को सूचित किया और विधिक कार्रवाई भी की गयी। राजनीतिक दलों द्वारा धरना प्रदर्शन किये गये जिनके विषय में समाचारों का प्रकाशन लगातार 22 दिसम्बर 2007 तक लगातार होता रहा। तारिक कासमी पहले से ही एसटीएफ लखनऊ और पुलिस की गैर कानूनी हिरासत में था, एसटीएफ और जाँच एजेंसी द्वारा दोनों के इकबालिया बयान मन गढ़न्त फर्जी लिख लिये गये और लखनऊ, फैजाबाद कचहरी बम धमाकों और गोरखुपर बम धमाकों में मुल्जिम बना दिया गया। झूठी गढ़ी गयी मौलाना अफजालुल हक की गवाही दिनाँक 28/12/2007 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव ने रसूलपुर स्थित दारुल उलूम मदरसे में पढ़ाने वाले मौलाना अफजालुल हक का बयान रिकॉर्ड किया। उन्होंने बताया कि उनकी उम्र 80 वर्ष है और जिस्मानी तौर पर वे कमजोर हैं। उन्होंने खुद को ग्राम रघौली थाना घोसी जनपद मऊ का निवासी बताया। उन्होंने बताया कि दिनाँक 21/05/2007 को सायं काल तीन लड़के आये थे। कुछ देर रुके और बाद में चले गये थे। तीनों लड़के नई साइकिले लाये थे। एक लड़के को सब तारिक भाई तारिक भाई कहकर पुकार रहे थे और दूसरे को राजू और तीसरे को छोटू कहकर आपस में बात कर रहे थे। उन्होंने बताया कि तारिक पहले भी यहाँ आया था। अपने बयान के सन्दर्भ में कुछ भी बताने के लिये मोलाना अफजालुल हक अब जिन्दा नही हैं। इस लिये उन्होंने विवेचक को यह बयान दिया था अथवा नही और इसमें लिखित कितनी बातें सत्य हैं उसका अब कोई महत्व नहीं है। इसे अब साक्ष्य के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता क्योंकि जिरह के लिये मौलाना जिन्दा नहीं हैं। परन्तु यह बयान तब रिकॉर्ड किया गया जब इसके पूर्व 22/12/2007 को लखनऊ स्थित पुलिस एजेंसियों द्वारा तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी घोषित की जा चुकी थी और इस सम्बंध गोरखपुर पुलिस प्रशासन को सूचना मिल चुकी थी। दिनाँक 29/12/2007 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव कोतवाली बाराबंकी पहुँचे और उन्होंने मुकदमा अपराध संख्या 1891/2007 की एफआईआर और तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद द्वारा दिये गये कथित बयान की और फर्द बरामदगी की प्रति हासिल की। इस सम्बंध में विवेचक द्वारा केस डायरी दिनाँक 29/12/2007 में उल्लेख किया गया है। कौन है राजू उर्फ मुख्तार और छोटू ? तारिक कासमी के तथाकथित सहयोगी गोरखपुर बम धमाका काण्ड की विवेचना अब बाराबंकी में दिनाँक 22 दिसम्बर 2007 को गिरफ्तार घोषित किये गये तारिक कासमी के तथाकथित कबूलनामे पर केन्द्रित हो गयी। यद्यपि तारिक कासमी दिनाँक 12 दिसम्बर 2007 से ही पुलिस और दूसरी एजेंसियों की नाजायज हिरासत में था। अपने इस तथाकथित कबूलनामे में तारिक कासमी ने कहा है कि – ‘इससे पहले मैंने हेजाजी के कहने पर राजू उर्फ मुख्तार के साथ गोरखपुर बम ब्लास्ट की योजना बनायी थी और स्वयं गोलघर के आस पास रेकी कर मुख्तार उर्फ राजू व छोटू को लेकर हिदायत अनुसार विस्फोट कराया था’। निमेष आयोग की रिपोर्ट प्रश्न यह है कि तारिक कासमी का उपरोक्त कुबूलनामा क्या सही है? चूँकि निमेष आयोग की सरकार को प्रस्तुत दिनाँक 31 अगस्त 2012 रिपोर्ट से यह साबित हो चुका है कि तारिक कासमी पुलिस एजेंसियों की गैरकानूनी हिरासत में पहले से ही थे, इसलिये उपरोक्त तथा कथित कुबूलनामे का और उनसे की गयी किसी तथा कथित बरामदगी का कोई कानूनी महत्व नहीं हैं। यह सब पुलिस एजेंसियों द्वारा बनायी गयी कहानी और झूठे गढ़ गये साक्ष्य है। उपरोक्त तथाकथित कुबूलनामा तारिक कासमी ने अपनी स्वतंत्र इच्छा से और मुक्त वातावरण में नहीं दिया है बल्कि यह पुलिस की गैरकानूनी अभिरक्षा में जिसे बाद में 22/12/2007 को गिरफ्तारी की घोषणा करके, विधिसंगत बना दिया गया, लिखा गया हैं। इसलिये इसका कोई कानूनी महत्व नहीं है और इसे साक्ष्य के रूप में तारिक कासमी और किसी भी सह अभियुक्त के विरुद्ध नही पढ़ा जा सकता है। धारा 161 के बयानों में विरोधाभास विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव अब मुख्तार उर्फ राजू और छोटू की तलाश में लग गये इसके पश्चात गोरखपुर बम धमाके की पूरी विवेचना तारिक कासमी के तथाकथित कबूलनामे पर केन्द्रित हो गयी। दिनाँक 29/12/2007 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव द्वारा लखनऊ एसटीएफ कार्यालय में गोरखपुर में हुयी घटना के सन्दर्भ में तारिक से पूछताछ की और उसका बयान रिकॉर्ड किया गया। रिकॉर्ड किये गये इस तथाकथित बयान में तारिक कासमी ने अपना सम्बंध हूजी से होना स्वीकार किया और अपने साथी राजू उर्फ मुख्तार तथा छोटू के साथ योजना बनाकर दिनाँक 22/05/2007 को गोरखपुर में तीन बम धमाकों को करना भी स्वीकारा। तथाकथित कुबूलनामे में तारिक कासमी ने यह भी स्वीकारा कि उसने अपने उक्त साथियों के साथ गोरखपुर में तीन साइकिलों की खरीददारी जयदुर्गा साइकिल स्टोर और हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर से की थी जिन्हें लेकर वे मौलाना अफजालुल हक के मदरसे में भी गये थे। तारिक कासमी ने मौलाना को आजमगढ़ का रहने वाला बताया और यह भी कहा कि उसे राजू उर्फ मुख्तार और छोटू के असली नाम पते की जानकारी नहीं है क्योंकि हूजी से आदेश हुआ था कि कोई भी अपने किसी साथी से उसके नाम व पते की जानकारी नही करेगा। यह उल्लेखनीय है कि तारिक कासमी ने अपने इस तथाकथित कबूलनामे में अपने साथी के रूप में आतिफ व शादाब का नाम नहीं लिया, सिर्फ राजू उर्फ मुख्तार जिसे बाद में पुलिस ने सैफ बताया और छोटू जिसे बाद में पुलिस ने सलमान बताया, के नाम कथित रूप से लिये। दिनाँक 06/02/2008 की केस डायरी में विवेचक द्वारा यह उल्लेख किया गया है कि वे तारिक कासमी का फोटो लेकर गवाह मौलाना अफजालुल हक के पास गये और उन्हें तारिक कासमी का फोटो दिखाया जिसे मौलाना ने पहचाना और बताया कि यही तारिक कासमी है जो अपने दो साथियों के साथ दिनाँक 21 मई 2007 को साइकिलें लेकर मदरसे में अपने साथियों के साथ आया था और कुछ समय रुका भी था। क्या यह सम्भव हैं कि अस्सी वर्षीय व्यक्ति जो शारीरिक रूप से कमजोर है, नौ माह बाद किसी व्यक्ति के फोटो को देखकर पहचान सकता है कि वही व्यक्ति नौ माह पूर्व आया था। दिनाँक 12 फरवरी 2008 की केस डायरी में विवेचक द्वारा यह उल्लेख किया गया है कि उन्होंने जयदुर्गा साइकिल स्टोर के मालिक संजीव को तारिक कासमी की फोटो दिखायी जिसे पहचान कर संजीव ने बताया कि इसी व्यक्ति ने इफ्तेखार के नाम से दिनाँक 21 मई 2007 को एटलस साइकिल खरीदी थी संजीव ने कहा कि यह फर्जी पते से मेरे पास आया था और इससे पहले मैने इसे नहीं देखा था। जो साइकिल बेची गयी थी उसका फ्रेम नम्बर 68467 था। दिनाँक 24 फरवरी 2008 की केस डायरी में विवेचक द्वारा यह उल्लेख किया गया है कि उन्होंने हिन्दुस्तान साइकिल स्टोर के मालिक सुभाष शेट्टी को तारिक कासमी का फोटो दिखाया जिसे पहचानते हुये उसने कहा कि यही वह व्यक्ति है जो दिनाँक 21/05/2007 को अपने दो साथियों के साथ आया था और हीरो जेट साइकिल व एक एटलस साइकिल खरीदी थी। यहाँ यह उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि पूर्व विवेचक द्वारा दिनाँक 10/06/2007 को संदिग्ध अपराधियों का स्केच पूछताछ के आधार पर बनाया गया था, सार्वजनिक स्थानों पर चस्पा कराया गया। कोई भी स्केच उन चश्मदीद गवाहों के द्वारा बनवाया जाता है जो अपराधी को घटनास्थल पर अपराध करते हुये देखते हैं परन्तु विवेचक द्वारा उन गवाहों के नाम पते और बयान दर्ज नहीं किये गये। इसके पश्चात दिनाँक 25/12/2007 को विवेचक द्वारा केस डायरी में यह लिखा गया कि पूर्व जाँच में यह पता चला था कि घटना में प्रयुक्त साइकिलें जय दुर्गा सायकिल स्टोर और हिन्दुस्तान सायकिल स्टोर से खरीदी गयी थीं और इनके दुकनदारों से पूछताछ के आधार पर घटना में शामिल सम्भावित अभियुक्तों का स्केच जारी किया गया था। विवेचक द्वारा किया गया यह उल्लेख और विवेचना पूरी तरह झूठ और दोषपूर्ण है क्योंकि दिनाँक 25 दिसम्बर 2007 से पहले की किसी भी तिथि में यह उल्लेख केस डायरी में नहीं है कि घटना में प्रयुक्त साइकिले इन्हीं उक्त दुकानों से खरीदी गयी थीं और इन्हीं उक्त दुकानदारों ने सम्भावित अपराधियों के स्केच पुलिस से बनवाये थे और कोई बयान रिकॉर्ड कराया था और खरीददारी की बाबत कोई रसीद अथवा दस्तावेजी सबूत पुलिस को उपलब्ध कराया था। नौ माह पूर्व किस विक्रेता को साइकिलें बेची गयी हैं, उनका फोटो देखकर कोई दुकानदार कैसे उनकी शिनाख्त कर सकता है कि अमुख तिथि को अमुक रसीद नम्बर पर जो साइकिल बेची गयी है, वह इसी फोटो वाले व्यक्ति ने खरीदी थी। शिनाख्त के लिये दिखाए गये साइकिल विक्रेता गवाहों को तारिक कासमी के फोटो क्या ऐसे ही होती है शिनाख्त किसी भी अपराधी की शिनाख्त के विषय में कानून की व्यवस्था यह है कि घटना घटित होने के पश्चात निश्चित समय सीमा के भीतर जो अधिकतम तीन माह हो सकती है किसी अपराधी को शिनाख्त करने के लिये गवाह के सम्मुख पेश किया जाता है। इस मामले में अभी तक तारिक कासमी अथवा किसी भी अन्य व्यक्ति को शिनाख्त करने के लिये साइकिलें बेचने वाले दुकानदारों के सम्मुख पेश नहीं किया गया। वस्तुतः इस मामले में घटना के समय घटना स्थल का कोई गवाह है ही नहीं जो यह कह सके कि उसने तारिक कासमी और उसके साथियों को साइकिलें रखते और विस्फोट होते देखा था। मौलाना अफजालुल हक का निधन हो चुका है इसलिये वो गवाही के लिये उपलब्ध नहीं हैं। इस मामले में पुलिस द्वारा पहले जो स्केच संदिग्ध अपराधियों के जारी किये गये वो किसकी निशानदेही पर बनाये गये थे और किसके थे वो अभी तक स्पष्ट नहीं है। दूसरे यह कि लखनऊ में तारिक कासमी की गिरफ्तारी के बाद विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव ने दिनाँक 12 फरवरी 2008 और दिनाँक 24 फरवरी 2008 को साइकिल विक्रेताओं को तारिक कासमी की फोटो दिखाकर पहचान करायी। यह शिनाख्त कराने का विधि संगत तरीका नहीं है। प्रश्न यह है कि विवेचक को यह किसने अधिकार दिया था कि वह तारिक कासमी का फोटो हासिल करके साइकिल विक्रेता गवाहों को दिखाये और उनकी पहचान कराये। यह साबित करता है कि सभी गवाह और पूरी विवेचना दुर्भावनापूर्वक यह साबित करने के लिये की जा रही थी कि इस मामले में तारिक कासमी मुख्य अपराधी है। दिनाँक 28 सितम्बर 2008 को विवेचक विश्वजीत श्रीवास्तव ने केस डायरी पर्चा 56 में यह उल्लेख किया है कि महराजगंज जनपद में कैफी निवासी जनपद सिवान नामक एक व्यक्ति और उसके साथी ताबिश आजमी को बिठाकर रखा गया है। जिस सूचना पर विवेचक थाना नौतनवा में गिरफ्तार इन व्यक्तियों से पूछताछ के लिये लिये गये और उन्हें वह स्केच दिखाए गये जो गोरखपुर ब्लास्ट के संदिग्ध व्यक्ति थे और उनसे कैफी और ताबिश का मिलान भी किया गया परन्तु कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। कुछ अन्य विरोधाभास विवेचक द्वारा लगातार राजू उर्फ मुख्तार और छोटू की तलाश की जा रही थी, जिनके बारे में तारिक कासमी ने कथित कबूलनामें में जिक्र किया था और यह भी कहा था कि उसको इन दोनों के असल नाम व पते ज्ञात नहीं हैं क्योंकि हूजी द्वारा यह निर्देश दिये गये थे कि कोई भी व्यक्ति अपने साथियों से उसके असल नाम व पते नहीं पूछेगा। परन्तु यहाँ उल्लेख करना आवश्यक होगा कि मौलाना अफजालुल हक के बयान में यह आया है कि जब तारिक कासमी उनके मदरसे में आया था तो उसने अपना नाम तारिक कासमी ही बताया था और उसके साथ आये उसके दोनों साथी उसे तारिक भाई-तारिक भाई कह रहे थे जबकि दूसरे को राजू-राजू और तीसरे को छोटू कह रहे थे। प्रश्न यह है कि तारिक कासमी ने अपना कोई दूसरा नाम क्यों नहीं रखा और क्यों नहीं अपना परिचय किसी दूसरे नाम से मौलाना अफजालुल हक को कराया, बल्कि क्यों असली नाम से परिचय कराया जबकि कथित रूप से मुख्तार उर्फ राजू उर्फ छोटू अपना असल नाम छिपाये हुये थे और दूसरे नामों से अपना परिचय पेश कर रहे थे, तारिक कासमी को उसके असली नाम से तारिक-तारिक कह कर पुकार रहे थे। यहाँ यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि तारिक कासमी ने अपने तथाकथित कबूलनामे में मौलाना अफजालुल हक को आजमगढ़ का निवासी बताया था, जबकि मौलाना अफजालुल हक आजमगढ़ से लगभग साठ किलोमीटर दूर ग्राम रघौली थाना घोसी जनपद मऊ के निवासी थे। इस प्रकार उपरोक्त सारी कहानी विवेचक द्वारा गढ़ी गयी साबित होती है। जिसमें गवाहों को फिट किया गया है। सैफ और सलमान को अभियुक्त बनाया जाना दिनाँक 9 मार्च 2009 को विवेचक श्री वीके मिश्रा ने पर्चा नम्बर 65 केस डायरी में उल्लेख किया है कि पुलिस अधिक्षक (वीके) अभिसूचना लखनऊ के पत्र दिनाँक 26 फरवरी सन 2009 द्वारा अवगत कराया गया है कि दिनाँक 19 सितम्बर 2008 को दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये गये इंडियन मुजाहिदीन संगठन के मोहम्मद सैफ ने निवासी संजरपुर थाना सरायमीर जनपद आजमगढ़ पूछताछ पर गोलघर गोरखपुर में हुयी घटना में शादाब, शकील, आतिफ और सलमान को शरीक जुर्म बताया है। विवेचक द्वारा वादी मुकदमा राजेश राठौड़ और दोनों साइकिल विक्रेताओं संजीव और सुभाष शेट्ठी को तलब कर उनसे शादाब, शकील, आतिफ और सलमान के सम्बध में जानकारी