एक बाघ का डाइंग डिक्‍लेरेशन

Hari Joshi
Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

बस्‍ती में घुस आए एक भूखे और कमजोर बाघ को गांव वालों ने मिलकर मार डाला। शेर ने मरने से पहले एसडीएम साहब को बयान कलमबद्ध कराया। आप भी पढि़ए इर्द-गिर्द पर - http://irdgird.blogspot.com/2009/04/blog-post_26.html

..और बताएं कि जंगल का राज क्‍या करे।

Edited 15 years ago
Reason: शीर्षक में गलती
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अच्छा लेख है। मैंने विस्तृत टिप्पणी आपके ब्लोग में ही दे दी है।

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

आपने पोस्‍ट पर अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है कि जंगल में मानव वस्‍ती नहीं रह सकती। लेकिन मेरा नजरिया अलग है। जंगल में जो वनवासी रहते हैं उन्‍होंने सदियों से वन और वन्‍य जीवों को नुकसान नहीं पंहुचाया क्‍योंकि उनका अस्तित्‍व वन से ही सुरक्षित है। कई जगह वनवासियों ने शिकारियों से संघर्ष किया है। एसी में बैठकर बाघ को बचाने वाले बाघ बहादुर 

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

आपने पोस्‍ट पर अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है कि जंगल में मानव वस्‍ती नहीं रह सकती या नहीं रहनी चाहिए। लेकिन मेरा नजरिया अलग है। जंगल में जो वनवासी रहते हैं उन्‍होंने सदियों से वन और वन्‍य जीवों को नुकसान नहीं पंहुचाया क्‍योंकि उनका अस्तित्‍व वन से ही सुरक्षित है। कई जगह वनवासियों ने शिकारियों से संघर्ष किया है। एसी में बैठकर बाघ को बचाने वाले बाघ बहादुर लंबी बहसें कर सकते हैं, फंड खपा सकते हैं लेकिन बाघ को नहीं बचा सकते। बाघ को बचाने के लिए वनवासियों की सहायता लेना और उन्‍हें संरक्षण देना इस दिशा में एक अच्‍छा कदम साबित हो सकता है।

मेरा तर्क यह था कि वनवासी को हम इस तरह से देखते हैं मानो वे साक्षात देव स्वरूप हों, जिनसे कोई गलती हो ही नहीं सकती, जो हमसे हर बात में भिन्न हैं, और सच्चे अर्थों में प्रकृति के बच्चे हैं।

यह परिभाषा आजकल के बहुत कम वनवासियों पर लागू होती है। वे भी सभ्यता और आधुनिकता की चपेट में आते जा रहे हैं। उनकी भी आकाक्षाएं हमारी जैसी होती जा रही हैं। वे भी शिक्षा, अधुनिक सुविधाएं, नौकरियां, सड़कें, मकान आदि चाहते हैं।

यह सब जंगल के भीतर रह रहे आदिवासियों को मुहैया करना असंभव है।

इसलिए दो ही विकल्प सामने रहते हैं। या तो जंगल को उजाड़कर वहां आदिवासियों को सब आधुनिक सुविधाएं मुहैया की जाए, या उन्हें जंगलों से बाहर गैर-जंगल इलाकों में बसाकर वहां उन्हें सभी सुविधाएं मुहैया की जाए।

यदि पहला विकल्प चुना जाए, तो बाघ को नमस्कार करना पड़ेगा और उसे चिड़ियाघर में भर देना पड़ेगा।

यही मेरा कहना था।

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

आपके तर्क से मैं सहमत हूं कि वनवासियों को वन के भीतर आधुनिक सुविधाएं मुहैया नहीं कराईं जा सकतीं। वन में स्‍कूल या हॉस्‍पीटल नहीं खोले जा सकते। आधुनिकता की बयार के छूते ही फिर वह वनवासी कहां कहलाएंगे। उनके लिए शिक्षा का प्रबंध वन क्षेत्र से बाहर हो और जो लोग वनक्षेत्र से बाहर नौकरियां या व्‍यापार कर रहें हैं उन्‍हें वन क्षेत्र से विस्‍थापित कर अन्‍यत्र पुनर्वास करना चाहिए।...लेकिन एक बात तय है कि वन और वन्‍य जीव को बचाने के लिए बाहरी ताकतें काम नहीं आएंगी; उसके लिए वनवासियों और स्‍थानीय निवासियों का ही सहारा लेना पड़ेगा।

वन्य जीव संरक्षण में स्थानीय निवासियों को शामिल करना चाहिए। इससे उनमें वन्य जीव संरक्षण में निहित हित बन जाएंगे। इससे वे वन्य जीवों को नुकसान पहुंचानेवाली ताकतों से सहयोग नहीं करेंगे।

लेकिन मुझे नहीं लगता कि केवल स्थानीय लोग वन्य जीवों की रक्षा कर पाएंगे। उनके पास पर्याप्त साधन नहीं होंगे।

असल में देखा जाए, तो बाघ, हाथी, सिंह, भैंसा, गैंडा आदि वन्य जीव सारे राष्ट्र की और सारी मानव जाति की धरोहर हैं। उन्हें बचाने के काम में पूरे राष्ट्र को और पूरी मानव जाति को आगे आना होगा। अन्यथा कुछ न हो सकेगा।

इसीलिए पर्यावरण शिक्षण अत्यधिक महत्व की चीज है। वह लोगों को समझाता है कि वन्य जीव, प्रकृति, प्राकृति संसाधन आदि को बचाना सभी के फायदे की चीज है।

इस तरह शहरों में रह रहे लोग भी, जिनका जंगलों से सरोकार केवल  वहां चंद दिनों की छुट्टियां बिताने तक ही सीमित होता है, वन्य जीवों के संरक्षण में योगदान कर सकते हैं।

 

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

आपकी बात सही है कि स्‍थानीय लोगों के पास उतने साधन नहीं कि वे वन्‍य जीवों का शिकार रोक सकें और उनके बीच कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो शिकारियों को थोड़े से लालच के पीछे दुरुह जंगलों का रास्‍ता भी बताते हों, सहयोगी हों लेकिन अगर हमने उन्‍हें समझा लिया और उनका सदुपयोग किया तो बहुत अच्‍छे परिणाम निकलेंगे। पिछले दिनों कई ऐसे समाचार पढ़ने को मिले जब जंगलों के आसपास रहने वाले लोगों ने बहादुरी से मुकाबला करते हुए शिकारियों को खदेड़ दिया। खुद चोटें खाईं लेकिन जंगल की रक्षा की।

बाघों से जुड़ा एक रोचक लेख नुक्ताचीनी ब्लोग में छपा है, यहां -

अब बाघिनें भी चलीं ससुराल...

बाघों से जुड़ा एक प्रहसन मैंने अपनी जयहिंदी में भी प्रकाशित किया है, उसे भी पढ़ें -

 

राष्ट्रीय पशु गीदड़

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

क्‍या बात है! हमने भी एक क्‍लब बनाया था गीदड़ इंटरनेशनल जिसका हर सदस्‍य अपने नाम के आगे गीदड़ लगाता था जैसे लायन फलां-फलां।

नुक्‍ताचीनी पढ़ने के बाद जय हिंदी पर पंहुचता हूं।

गीदड़ क्लब का विचार बढ़िया है। कहा भी गया है जब मौत आत है तो गीदड़ शहर की राह पकड़ता है। हमारे शहरों में गीदडों की शायद इसीलिए भरमार हो गई है। कुछ तो चुनाव में भी अपना किसमत आजमा रहे हैं।

उनके लिए जरूर क्लब होना चाहिए!

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

शायद गीदड़ भी उनसे अपनी तुलना होती देखकर अपमानित महसूस करें।

हां, यह बात भी सही है। हो सकता है वे जंगल में मानव क्लब बनाकर अपने समुदाय के घटिया सदस्यों को मानव का बिल्ला लगाकर जंगल की गलियों में फिराते होंSmile

ताजा समाचार यह है कि अब पन्ना में भी कोई बाघ नहीं बचा है।

लगता है कि बाघ की नस्ल की अंतिम घड़ी आती जा रही है।

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

जी हां, आज पोस्‍ट लिखना चाहता था लेकिन राजनीति के भांडों के चक्‍कर में सुबह से फंसा हूं। ..शक्‍ल देखने का मन नहीं करता लेकिन क्‍या करुं- पापी पेट का सवाल है।

हरि जी, मैं अपने ब्लोग Jaihindi Magazine में मेरे बाघ अनुभव के बारे में एक पोस्ट लिखा है। जरूर पढ़ें -

Tiger! Tiger! Burning Out!

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

मैने लिंक पर चटका लगा दिया है। पन्‍ना रिजर्व टाइगर पर मैने एक पोस्‍ट लिख दी है।

एक बाघ का डाइंग डिक्लेरेशन

Hari Joshi
from Meerut
15 years ago

क्षमा कीजिएगा। लिंक गलत पेस्‍ट कर दिया। 

बिन साजन कैसे बने सुहागन


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