और जब तूने पलट कर आवाज़ दी
एक असीम खमोशी थीजो सूखे पत्तों की तरह झरतीया यूँ ही किनारे की रेत की तरह घुलती ...पिछली पोस्ट में अमृता की कहानी का ज़िक्र था .उनकी कहानियाँ ज़िन्दगी के यथार्थ से बुनी हैं इस लिए दिल को छू जाती है और अपनी सी लगती हैं ...उनकी आज की कहानी पिघलती चट्टान नेपाल की कुमारी की व्यथा से जुडी है ..रात के चौथे पहर में एक अकेली पगडण्डी पर राजश्री अकेली अपने पैरों के साथ बात करती जा रही है उसको महसूस होता है कि जैसे इस पगडण्डी से उसके पैरों की बात चीत बहुत लम्बी और बहुत पुरानी है शायद दो सौ बरस से भी अधिक पुरानी ..अचानक उसके पैर चलते चलते एक स्थान पर ठहर जाते हैं और वह सोचने लगी है कि वह इस तरह से कहाँ जा रही है ..यह कौन सा रास्ता है ..सामने नदी में बहुत बड़ा भंवर पड़ा हुआ है जो उसकी तरफ मुस्करा के देखता है और कहता है वहीँ जा रही हो जहाँ दो सौ साल पहले तुम्हारे वंश की एक कुमारी रतनराज लक्ष्मी गयी थी ..यह सुन कर राजलक्ष्मी घबरा गयी उसने अपने आस पास देखा यहाँ उसके सिवा कोई और ना थाउसकी आँखों में एक हसरत सी भर गयी ...पैरों के लिए सिर्फ एक ही रास्ता क्यों ...कोई और रास्ता क्यों नहीं ....? इस पर्वत पर सिर्फ एक ही रास्ता क्यों बना ...राजलक्ष्मी की इस बेबसी के साथ पढने वाले दिल भी बेबस हो जाते हैं ....